पेज - 20
शुक्राचार्य आश्रम में,
रावण अपने कक्ष में ध्यानावस्था में बैठा था
उसी समय विभीषण और कुम्भकर्ण ने प्रवेश किया, रावण को ध्यान की अवस्था में देख कर
दोनों रुक गये, बाहर ही प्रतीक्षा करने लगे रावण का ध्यान योग समाप्त हुआ, बाहर कुम्भकर्ण और विभीषण को देख कर रावण प्रसन्न हो
गया और रावण ने मुस्कुरा कर स्वागत भाव में कहा “अरे मेरे छोटे भाइयो बाहर क्यों खड़े
हो, अन्दर आओ”
“प्रणाम भैया” दोनों ने झुक कर दंडवत प्रणाम
किया
रावण ने दोनों को उठा कर गले लगा लिया और
बोला “मेरे भाई इतने दिनों बाद मेरे पास आये, कोई
विशेष प्रायोजन? कहो तुम्हारी शिक्षा कैसी चल रही है?”
“भ्राता रावण आपके आशीर्वाद से सब कुशल है
शिक्षा भी अपनी गति से गतिमान है, विभीषण के मन में कुछ संदेह उठ रहे है उनके निवारण
के लिए ही आपके पास आये है” कुम्भकर्ण ने कहा
“हां हां कहो मेरे प्रिय विभीषण ऐसा क्या
संदेह है जिसके निवारण के लिए गुरु जी के पास ना जा कर मेरे पास आये हो” रावण ने
विभीषण से पूछा.
विभीषण हाथ जोड़े खड़ा था. सर झुका कर बोला “भैया मेरा संदेह आपकी रक्ष संस्कृति से
सम्बंधित है जिसके लिए हम लोग यहाँ आये है”
“रक्ष संस्कृति से संदेह बोलो प्रिय निसंकोच
बोलो क्या संदेह है?” रावण ने विभीषण से पूछा
“भैया मुझे क्षमा करे परंतू पूछना आवश्यक है
आपने जो रक्ष संस्कृति की कल्पना की है और जो राक्षस जाति बनाने जा रहे है आपको ऐसा नहीं लगता इस जाति में सम्पूर्ण भोग के नाम पर ब्यभिचार होगा राक्षस बनाने के
लिए आपकी जो योजनाये है उनसे अत्याचार बढेगा जो बलवान होगा वह अहंकारी हो कर
तानाशाह बनेगा, स्त्रिया और सज्जन पुरुष सुरक्षित नहीं रहेगे”
“हा विभीषण एक सीमा तक यह संभव भी है, हो भी
सकता है” रावण सोंच कर बोला
“तो फिर आपने यह योजना क्यों बनाई जो
सम्पूर्ण भूमंडल की शांति ब्यवस्था को ख़त्म कर दे“ विभीषण ने पूछा
“दुष्ट देवताओ को दंड देने के लिए अपने
स्वाभिमान के लिये” रावण ने कहा
“भैया पितामह ब्रम्हा ने जब पूरे भूमंडल में
शांति स्थापना, प्रकृति संतुलन रखने का उत्तर दायित्व लिया और देवो को अलग अलग कार्य
दिए जो अपना अपना कार्य कर भी रहे है हो सकता है उनमे से कुछ पद पा कर घमंडी हो गए
हो और पद के मद में गलती कर बैठे परंतू इसका अर्थ यह तो नही की सभी देव दुष्ट है” विभीषण
ने कहा
“नहीं विभीषण सभी देव पद के मद में अहंकारी
हो गए है जो खुद सोमरस पिए भोग विलास में डूबे रहते है और सब से यशोगान करवाते
रहते है मई तो रक्ष संस्कृति में सबको सामान अधिकार दे रहा हूँ सुख से जीने का
अधिकार तो सभी को है” रावण ने स्वाभिमान के साथ कहा
“परंतू भैया सब सुख के पीछे भोग विलास में
डूबे अत्याचारी न हो जाये कही ऐसा ना हो की चारो और अनाचार ही अनाचार हो शांति
ब्यवस्था ख़त्म ही हो जाये प्रक्रति भी अपना संतुलन खो बैठे यदि ऐसा हुआ तो आने वाला
इतिहास आप को एक खलनायक के रूप में याद करेगा . बस इसी के लिए मै आपको आगाह करने
आया था.” विभीषण ने कहा
“नहीं विभीषण ऐसा नहीं होगा जब भी तुम्हे
ऐसा लगे की स्थितिया बेकाबू होने जा रही है तुम मुझे हमेशा रोक सकते हो मई तुम्हे
यह अधिकार देता हूँ” रावण ने हस कर कहा फिर कुम्भकर्ण की और देख कर बोला “प्रिय
कुम्भकर्ण तुम क्या कहते हो ?”
“भैया मै तो आपके साथ स्वाभिमान के साथ चलने
के पक्ष में हूँ” कुम्भकर्ण ने कहा
“भैया संघर्ष स्वभिमान तक ही रहे अहंकार का
रूप न ले तो ही अच्छा है” विभीषण ने कहा
रावण ने विभीषण के कंधे पर हाथ रख कर कहा “प्रिय
विभीषण तुमने अपनी माँ का त्याग नहीं देखा वो महलों में रहने वाली राजकुमारी हमारे
स्वभिमान के लिए ही हमें लिए जंगलो में भटक रही है”
सभी शांत थे कुछ देर रुक कर विभीषण ने फिर
पूछा
“भैया एक संदेह और भी है देवताओ के राजा
इंद्र तो खुद ही पराक्रमी होते है उनके प्रबल सहयोगी विष्णू है जो खुद सारी विद्या
में निपुण है ऐसे में आप देवताओ को दंड दे पायेगे? आप क्या सोचते है, मुझे संदेह
होता है?”
“प्रिय विभीषण मै केवल वही सोचता हूँ जो मै
करना चाहता हूँ कैसे करूगा उसके लिए मै खुद को तैयार करता हूँ मै क्या नहीं कर
पाउगा उस बारे में कभी नही सोचता. मै जनता हूँ इस धरती में रावण केवल एक है वो मै
मेरे जैसा ना कोई हुआ है ना कोई होगा ना ही भूत काल में ना ही कोई भविष्य काल में”
रावण ने कहा
“परंतू भैया .........” विभीषण कुछ कहना चाह
रहा था
किन्तु रावण ने बीच में ही रोक दिया और बोला “किन्तु
परन्तु लेकिन ये सभी शब्द लक्ष्य के बाधक शब्द है जो लक्ष्य से मनुष्य को दूर करते
है, सफलता, सम्ब्रध्दी और ख्याति का एक ही निश्चित नियम है अपने मन के भय को मार दो
और उसके लिए केवल सफलता के बारे में सोचो जिससे साहस और आत्मविश्वास बढेगा हर पल
ख़ुशी में वीतेगा और तुम खुद को सफल होने के लिए तैयार कर पाओगे“
अब विभीषण
निरुत्तर था कुम्भकर्ण के मुह पर प्रसन्नता की मुस्कान थी. दोनों ने रावण को
प्रणाम किया और वापस चल दिए.
No comments:
Post a Comment