पेज - 21
समय बीतता गया . रावण,कुम्भकर्ण,विभीषण की शिक्षा अब पूरी हो चुकी थी अब रावण एक महान योद्धा दिव्य अस्त्रों का पूर्ण जानकार , कुशल राजनीतिज्ञ था उसकी खुद की अपनी रूचिया भी संगीत,गायन,ज्योतिष में थी इनका भी वह अच्छा जानकार था . रावण में आर्य कुल और दैत्य कुल दोनों खून था वह दोनों की विशेषताओ से परिचित था .
आज शुक्राचार्य आश्रम में रावण कुम्भकर्ण और विभीषण का अंतिम दिन था उनकी शिक्षा पूरी होने के बाद दीक्षांत समरोह साथ ही गुरदीक्षा देने का समय है चुकी रावण पहले से ही रक्ष संस्कृति को लेकर इतना ज्यादा प्रसिद्ध हो चूका था और दैत्य तो उसे पहले से ही अपना युवराज मानने लगे थे उसमे अपना भविष्य देख रहे थे इसलिए उसका दीक्षांत समारोह एक भब्य कार्यक्रम के रूप में आयोजित किया गया .
परंतू शुक्राचार्य के मन में एक नया विचार था वो चाहते थे की इस कार्यक्रम के बहाने रावण को ईश्वरीय अंश .अति विशिष्ट पुरुष बना कर प्रस्तुत करे ताकि रावण की रक्ष संस्कृति को जो रावण के विरोधी भी है श्रद्धा के रूप ले तथा रावण के हर विचार को ईश्वर का विचार माने .
समारोह में माली .सुमाली . माल्यवंत और कैकसी सहित विशाल जन समुदाय उपस्थित था . रावन कुम्भकर्ण विभीषण अलग पन्ती में खड़े हुए है उनके सामने की पन्ती में आश्रम के आचार्य जन सभी को कुलपति शुक्राचार्य की प्रतीक्षा है . शुक्राचार्य आये सभी सम्मान में झुक गए . रावन कुम्भकर्ण विभीषण ने दंडवत हो कर प्रणाम किया .शुक्राचार्य ने दोनों हाथो से आशीर्वाद देने की मुद्रा में हाथ ऊपर उठाये जनसमुदाय आचार्य गण सामान्य अवस्था में हो गए अब शुक्राचार्य ने रावन सहित दोनों भाइयो को यशस्वी होने का आशीर्वाद दिया तीनो भाई हाथ जोड़े खड़े थे .
शुक्राचार्य ने उपस्थित समुदाय को संबोधित करना प्रारंभ किया “ इस गुरुकुल के सम्मानित और विद्वान आचार्य , अध्ययनरत कुमार , इस आश्रम के कर्मठ कर्मचारी और सम्मानित अतिथि के रूप उपस्थित सभी जन मैंने रावण को शिक्षा देते समय हर प्रकार से परिक्षण किया रावण मैंने रावण को अदभुत क्षमता युक्त अति विशेष विद्यार्थी के रूप में पाया ऐसी क्षमता मात्र ईश्वरीय क्षमता युक्त वरद पुत्रो के पास ही होती है परिक्षण के उपरांत मेरा विश्वास है रावण में ईश्वरीय अंश है आज रावण अपनी विद्या में पूर्ण पारंगत है रावण में कुशल प्रशासक के सभी गुण है यह आपका राजा बनने के लिए पूर्णतया योग्य है . मै अपना प्रिय शिष्य आज आपको सौपता हूँ”
फिर रावण. कुम्भकर्ण. विभीषण की ओर देख कर पुनः बोलना प्रारंभ किया “जाओ रावण अपने पराक्रम से अपने यश का परचम पूरे भूमंडल पर लहरा दो दैत्य दानव नाग सभी जातियों से सम्मलित अपनी राक्षस जाती का विस्तार पूरे भूभाग पर करो, बत्स कुम्भकर्ण तुम वीर योद्धा होने साथ साथ अच्छे शोध कर्ता वैज्ञानिक भी हो तुम अपने भाई का दिव्य आयुधो के निर्माण में सहयोग कर उनका राज्य विस्तार करो और विभीषण तुम राजनीती के ज्ञाता हो परंतू कूटनीति तुमने नहीं सीखी इसलिए तुम अपने बड़े भाई के परामर्श दाता बनो, तुम तीनो को मेरा आशीर्वाद है”
“गुरुदेव आपकी गुर दीक्षा ?” रावन ने बड़े संकोच में पूछा .
“रावण जिस दिन तुम देव गुरु ब्रहस्पति को मेरे सामने असहाय लाचार खड़ा कर दोगे मेरी तुम तीनो से गुरदीक्षा पूर्ण हो जाएगी अभी यह ऋण है” शुक्राचार्य ने कहा .
“ गुरु शुक्राचार्य की जय” एक उद्घोष उठा .
रावण कुम्भकर्ण विभीषण तीनो हाथ जोड़ कर खड़े थे.
“युवराज रावन की ......जय , कुम्भकर्ण की .........जय विभीषण की .........जय” उद्घोष होते जा रहे थे .
शुक्राचार्य ने हाथ उठा कर सबको शांत किया फिर सुमाली की और देख कर कहा “ सुमाली राज्य विस्तार की सुनियोजित योजना अति शीघ्र बनाना. रावण को बहुत कार्य करने है”
सुमाली ने सहमती में सिर हिलाया .
रावण ने अब चारो और हाथ जोड़ सभी का अभिवादन किया परंतू यह क्या आचार्य उपवीत कही दिखाई नही दिए रावण आश्चर्य में पढ़ गया इस अवसर में आचार्य उपवीत उपस्थित नही है ऐसा क्या हुआ ?
रावण ने सभी को प्रणाम कर सब को वही छोड़ आचार्य उपवीत के कक्ष की और चल दिया जहा आचार्य उपवीत जैसे रावण की एकांत वार्ता के लिए प्रतीक्षा कर रहे थे .
“ प्रणाम आचार्य” रावण ने उपवीत को देख कर कहा .
“युवराज रावण मित्र का सम्मान आचार्य कह कर बढ़ा रहे हो या आज मित्रता आचार्य कह कर समाप्त कर रहे हो ?” उपवीत ने हसते हुए पूछा
“मै तो स्वयं नही समझ पा रहा हूँ की आप मेरे इतने अन्तरग मित्र हो कर आज मेरे दीक्षांत समरोह में नहीं आये सब कुशल तो है ना ?” रावण ने पूछा
“ सब कुशल है युवराज मै जानता था तुम मुझे वहा ना पा कर मुझसे मिलने अवश्य आओगे मै यहाँ एकांत में तुम्हारी प्रतिक्षा कर रहा था” उपवीत ने कहा
“ तो आचार्य आप भी मान ले मित्रता के जीवाणू वंशानुगत होने वाले जीवानुओ से ज्यादा हठीले होते है मित्रता कभी समाप्त नहीं होती समय के साथ सुस्त हो सकती है परंतू मित्र को देखते पुनः क्रियाशील हो जाती है . अब आप बताये एकांत की अन्तरंग वार्ता किस विषय पर होनी है ?” रावण ने पूछा .
“मेरी शुभकामनाये लीजिये युवराज अब आप रक्ष जाती के यशस्वी सम्राट बनिए राक्षस जाती का यश विखेरे” उपवीत ने कहा
“आप भी चलिए ना मेरे साथ मेरे प्रधानमंत्री. अमात्य बनिए मेरा मार्गदर्शन करिये” रावण ने कहा
“ नहीं युवराज मेरी आवश्यकता यहाँ आश्रम में अधिक है यु भी मुझे राजनीती रास नहीं आती” उपवीत ने कहा
“ जैसा आप उचित समझे मुझे तो जब आवश्यकता होगी मै आपके पास आउगा सलाह लेने” रावण ने कहा
“ आपका सदैव स्वागतं है युवराज” उपवीत ने कहा .
“ अभी कोई सुझाव उचित हो तो दे आचार्य” रावण ने पूछा
“हा रावण जोश के साथ कार्य करो जो तुम्हे पसंद हो सफलता मिलाने पर स्वयम को पुरस्कृत भी करो” उपवीत ने सलाह दी
“ स्वयम को पुरस्कृत ?” रावण ने आश्चर्य से पूछा
“ हा मित्र जितनी बड़ी सफलता उतना बड़ा पुरस्कार इससे किये गए कार्यो के प्रति उत्साह बना रहता है यह पुरस्कार तुम्हारा कोई भी पसंदीदा कार्य हो सकता है संगीत ,नृत्य ,किसी सुन्दर स्त्री की संगत या जो तुम्हे उचित लगे” उपवीत ने समझाया रावण मुस्कुरा दिया .
“ हा युवराज कुशल शासक वही होता है जो अपने अधीनस्थ से कार्य लेना जानता है स्वयम कार्य कर उदहारण तो बने परंतू ध्यान रहे अधिक श्रम तो मजदूर करता है या फिर बैल, गधा, जानवर ये कभी भी सम्मानित नहीं होते सम्मानित वही होता है जो इनसे कार्य लेना जानता है” उपवीत ने कहा .
“आचार्य साम , दाम,दंड,भेद, नीति कार्य करवाने की इन विधिओ से तो मै परिचित हूँ अन्य कोई विधि भी हो बताये या जो मेरे लिए ऊचित हो वो बताये” रावण ने पूछा .
“दंड अर्थात भय युवराज भय तुम्हारे लिए भय ही उचित क्यों की तुम्हे जिन पर शासन करना है वो भय से ही समझेगे भय से तुम्हे प्रीत और सम्मान दोनों की प्राप्ति होगी” उपवीत ने बताया .
“भय से सम्मान क्या यह स्थाई होगा ?” रावण ने पूछा
“ बिलकुल होगा युवराज कल्पना करो किसी स्त्री से तुम्हारे सम्बन्ध तुम्हारे भय के कारण ही हो जाये उससे उत्पन्न होने बाला तुम्हारा पुत्र तुमसे कभी नही पूछेगा की मेरी उत्पत्ति मेरी माँ की सहमती से थी या असहमति से वो सदैव तुम्हे अपना पिता मान कर सम्मान ही देगा” उपवीत ने समझाया .
“ में समझ गया आचार्य” रावण मुस्कुरा दिया .
“अब जाओ मित्र रावण नये इतिहास का नया सबेरा तुम्हारी राह देख रहा है” उपवीत ने कहा.
“ हा मित्र वहा भी सभी मुझे खोज रहे होगे में चलता हूँ” रावण ने कहा फिर उपवीत से गले मिल प्रणाम कर रावण अपने नाना व् भाइयो के पास आ गया .
तीनो भाई आश्रम वासियों से विदा ले अपने नाना की गुफा कंदराओ की ओर चल दिये.
No comments:
Post a Comment